Sunday, July 8, 2018

60 साल, 3 घंटे- बहुत नाइंसाफी है



फ़िल्म रिलीज हुए 10 दिन हो चुके हैं। बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्म बेतहाशा कमाई कर रही है। लेकिन सोशल मीडिया पर फ़िल्म के विरोध में अब भी कई प्रतिक्रियाएं देखी जा रही है। जाहिर है संजू के द्वारा राजकुमार हिरानी ने काफी लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाया है। खासकर मीडिया को। 

खैर, संजय दत्त पर बॉयोपिक बनाने की कोई खास आवश्यकता नहीं थी। लेकिन यदि बनाना था, तो इससे बेहतर नहीं बन सकती थी। बॉयोपिक बनाने के पीछे एक मानसिकता यह होती है लोग उस किरदार से प्रेरणा लें। उन्होंने जीवन में नकारात्मकता से उठकर किस तरह खुद की नज़रों में अपने लिए जगह बनाई। यह दर्शक देखें।  ऐसे में निर्देशक ज्यादातर whitewashing करते भी दिख जाते हैं, जब वे सच्चाई से थोड़ा भटक जाते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि राजकुमार हिरानी ने संजय दत्त की 2 शादियां, एक बच्ची, सलमान से दोस्ती आदि क्यों नहीं दिखाया? तो इसके पीछे सीधा कारण यह भी देखा जा सकता है कि 3 घंटे में निर्देशक क्या क्या समेटना चाहते हैं। यह फ़िल्म राजू हिरानी की थी, जो हिस्सा उन्होंने दिखाना चाहा, उन्होंने वह दिखाया। इसमें निर्देशक गलत कैसे हुए? 

संजय दत्त की बॉयोपिक को कई दिशाएं दी जा सकती थी।  एक दिशा राजू हिरानी ने चुनी, जिसमें दोस्ती और पिता के साथ रिश्ते को अहमियत दी गई। हाँ, हर गलतियों को दूसरे के मत्थे फोड़ना विवादस्पद है। लेकिन फिर वही बात.. की यह कहानी संजय दत्त के द्वारा खुद के बारे में ही कही गयी है। तो आप ये सोच कर सिनेमाघरों में कदम रखें। सालों सालों तक मीडिया कहती है, लोग सुनते हैं। एक मौका मिला तो सेलेब्रिटी ने कहा और लोग सुन- देख रहे हैं।

हाँ, कई ऐसी घटनाओं को फ़िल्म में शामिल नहीं किया है, जो संजय दत्त की रियल लेकिन बुरी छवि दर्शकों के सामने रखती है। लेकिन क्या इसकी ज़रूरत थी? फ़िल्म और डॉक्यूमेंट्री में शायद यही भिन्नता है। यहां आपको 100 प्रतिशत सटीक फैट्स रखने की मजबूरी नहीं है। आपकी फ़िल्म से लोग प्रेरित हों, इसके लिए निर्देशक कहानी को अपनी दिशा दे सकते हैं। और हाँ, हर बॉयोपिक एक PR exercise ही होती है।

Saturday, March 25, 2017

अलग नहीं हैं आरा की अनारकली और अररिया की हीराबाई


फ़िल्म में एक सीन आता है जहां अनारकली अपनी गाने की इच्छा प्रकट करते हुए अपने प्रशंसक का हाथ पकड़ते हुए कहती है हीरामन भइया। नाम सुनते ही दिमाग एकदम से 1966 में आई फ़िल्म तीसरी कसम में पहुंच जाता है। सहसा एहसास होता है कि बिहार के अररिया ज़िले में फ़िल्माई गई तीसरी कसम और अनारकली ऑफ आरा दोनों की नायिकाएं शायद एक ही हैं। ये भी सच्चाई है कि उस समय का हीरामन स्टेशन पर जहां हीराबाई को छोड़कर जाता है, वहां से 2017 तक का सफ़र करने के बाद भी समाज आज हीराबाई या अनारकली की देह व चरित्र को उसी नज़र से स्कैन करता आ रहा है।
लेकिन अनारकली ऑफ आरा उन्हें सुकून देती है जिनके मन में इस बात की टीस रह गई थी कि हीराबाई अपनी परिस्थितियों को बदलने के लिए कुछ नहीं कर पाई। लोग वही हैं, समाज भी वही है। शादी-ब्याह, पूजा आदि के अवसर पर नाटक मंडली या ऑर्केस्ट्रा समूहों में नाचने-गाने-बजाने वाले आज भी इस नज़र से देखे जाते हैं जैसे कि द्विअर्थी झन्नाटेदार गानों पर थिरकता उनका बदन, प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद किसी वीसी, विधायक, वीआईपी गेस्ट आदि द्वारा नोचे खसोटे जाने के लिए बिकाऊ हो। ऐसे में ग़लती से किसी के मुंह से अपने लिए कलाकार शब्द सुनते हैं तब इन्हें ऐसा लगता है जैसे वही उनका असली पारिश्रमिक है। नचनिया-बजनिया शब्द आज भी कला की सराहना के रूप में नहीं, बल्कि एक निकृष्ट कोटि के कार्य से जोड़कर देखा जाता है। यही हमने फ़िल्म तीसरी कसम में भी देखा था और अनारकली ऑफ आरा भी इसी मुद्दे को उठाती हुई नज़र आती है। ऐसे में दोनों ही फ़िल्मों के क्लाइमैक्स की तुलना करें तो शान से इठलाती हुई आरा की गलियों में टहलनेवाली अनारकली का किरदार, पुरानी वाली हीराबाई के जागृत, विकसित व सशक्त रूप के तौर पर ही दिखता है।     
बदलते वक़्त के साथ हीराबाई ने अनारकली का रूप ले लिया है। अब वो बेइज्ज़ती होने के डर से किसी रसूखदार की नाजायज़ मांग को पूरा करने के डर से शहर छोड़कर जाती ज़रूर है, लेकिन हीरामन जैसे मन के सच्चे साथियों का सहारा पाकर वापस लौटती है और अनारकली बनकर उसी समाज के सामने तांडव करते हुए उन रसूखदारों की इज्ज़त की धज्जियां उड़ा देती है। यहां हिन्दी सिनेमा की कल्ट फ़िल्मों में गिनी जानेवाली तीसरी कसम से अनारकली ऑफ आरा की किसी भी तरह तुलना नहीं करनी चाहिए। मगर यह ज़रूर कहा जा सकता है कि जहां पर तीसरी कसम ख़त्म होती है, वहीं से हीराबाई के सशक्तिकरण की यात्रा अनारकली ऑफ आरा के रूप में शुरू होती है।  
निल बटे सन्नाटा के बाद एक बार फिर से स्वरा भास्कर ने अपने दमदार अभिनय से यह जता दिया है कि भले ही आप इस फ़िल्म को देखने के लिए पूरे थिएटर हॉल में शायद केवल 6-7 लोगों के बीच ही बैठे हों, मगर एक बार फ़िल्म देखकर बाहर निकलने के बाद आपको उन लोगों पर तरस ज़रूर आएगा जो एक उम्दा अभिनय के प्रदर्शन के साक्षी बनने से वंचित रह गए। पंकज त्रिपाठी जी हर बार की तरह अपनी मुस्कान और मसखरी अदाओं का जादू बिखेर जाते हैं और हमेशा की तरह दर्शक को यह सोचने पर मजबूर कर जाते हैं कि काश जल्द ही उन्हें किसी अहम और मुख्य किरदार में देखने का मौका मिल सके। ठरकी वीसी के किरदार को भी संजय मिश्रा जी ने विग पहनकर बड़ी ही चतुराई से संभाला है।
हीरामन का छोटा-सा, मगर प्रभावी किरदार इश्तियाक खान ने ज़रूर निभाया है, मगर तीसरी कसम के इस विलंबित सीक्वेल के गाड़ीवान तो निर्देशक अविनाश दास ही हैं जिन्होंने अपने पहले ही फेरे में अनारकली ऑफ आरा को उसकी सही मंज़िल तक पहुंचा दिया है। तीसरी कसम भले ही न देखी हो, बिहार जाने का संयोग भले ही कभी न बना हो, मगर हिन्दी सिनेमा में नायिका के बदलते स्वरूप के इस दौर में अनारकली ऑफ आरा जैसी फ़िल्म को देखने से चूक जाना, मेरे हिसाब से तो घाटे का ही सौदा कहलाएगा। 

- सुमित रंजन